कल्पवृक्छ तोर नांव
(छत्तीसगढ़ी रचना)
कल्पवृक्छ तोर नांव।
जाचक हें, जम्मों जगवासी, कहॉं तोर हे ठांव। कल्पवृक्छ.........
दधिचि असन पंचांग के दानी, कभू न हांत पसारे।
बिन रेंगे, तोर गुजर-बसर हे, आंखी कान उघारे।
भाव पढ़इया सबके मन के, कहां लुकाये पांव।। कल्पवृक्छ.........
बिन गोहार, दुख-पीरा सहिके, अउ देथस सुख दूना।
जीव-दान तोर महादान हे, तोर बिना जग सूना।
संकर कस बिख पीके देथस, प्रान वायु अउ छांव।। कल्पवृक्छ.........
दाता बन सरि को ही भरथस, अन्न, दार तिल रेसा।
कंद-मूल, फर-फूल असन ये, धन अनमोलन देसा।
चांटी ले हांथी ल पोसत, कतिक बड़े तोर गांव।। कल्पवृक्छ.........
फूल-पान सौ रंग धरे हे, अगास चुराट सतरंगा।
मंजूर, टेहर्रा रंगन मं फिंजगे, रंगगे जिहां तिरंगा।
मोंगरा, जूही अउ रुख के गुन, मनखे मं बगराव।। कल्पवृक्छ.........
का मोहनी बादर मं डारे, बरसे नंगत झकोरे।
जंगल, परबत, खेत-खार ल, हरियर रंग मं बोरे।
कोयली, मयना गीद सुनाथें, मया मं सब लपटाव।। कल्पवृक्छ.........
रचना – टी.आर देवांगन
तिथि – 26/12/2003
स्थान – उरला (बी.एम.वाय.)
जिला – दुर्ग (छत्तीसगढ़)
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