जोरय जिनगी के खेल मं
(छत्तीसगढ़ी रचना)
जनम के नंगरा, जुगुर-जागर, बुग-बाग, सूजी जिव परहा।
धरिस गुन गांधी के, पहिरे लंगोटी, निक लागय अलकरहा।
चाकरी मं आगू, निकालय बइरी कांटा, कइ ठन ल सरहा।
घर ल जोरय, परे ल जोरय, जुरगे धागा मं सब घरहा।।1।।
अपन ह उघरा, लाज ल ढांके, मनके ल दिस सुग्घर ओनहा।
जग बर करय तियाग, चुप्पे रहिके गंज करय बूता सोनहा।
गरीब-अमीर, जात-पांत, धरम-करम एक करय जोनहा।
जिनगी भर उपास करय, मरे न मोटाय, ए आवय कोन्हा।।2।।
हजार तग्गी कथरी, ओढ़न-बिछावन, गरीब के सुपेती।
खोल पहिरे सुग्घर, दगदग ले उज्जर, गांव के चहेती।
कपाय सलूखा, चिरहा सिलाय पटका, बूता हे खेती।
लुगरा चिराय, लाज ह बांचय, सूजी-धागाच्च के सेती।।3।।
बड़न के डांड़, रइफल ऊंचा के नायक, धंउड़िस तीन भांवर।
पछीना मं बोथबोथाय, हंफरत थरराय, होगे राज उजागर।
नियम-नेम मं बंधाय-पुलिस, सेना, कतको राहय आगर।
चिराय खीसा ह लटके, करिस सूजी-धागा के अनादर।।4।।
धन्ना सेठ घर नवलखा हार, अड़बर हे रे घोटाला।
लदाय हे घोड़ी कस मुड़पुरुस, पर गे हे कइ ठन छाला।
गरीबा घर कान मं गोंदा, बेनी मं, गजरा, मोंगरा माला।
रूखमनी हे बिटाय, महमई मं मुचमुचावत हे दुकाला।।5।।
मुकुट ले पनही, सिंगार ले सिलाई के, परे हे झेल मं।
अरे का कहिबे, लीला-नाटक मं, अउ त अउ भीतर जेल मं।
लिबिर-लिबिर, बुलक ललक के देस के मन ल करय मेल मं।
पूजव नानुक सूजी-धागा ल, जोरय जिनगी के खेल मं।।6।।
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रचना – टी.आर देवांगन
तिथि – 15/09/2003
स्थान – उरला (बी.एम.वाय.), जिला – दुर्ग (छत्तीसगढ़)
Monday, March 2, 2009
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