पंडवानी
(छत्तीसगढ़ी रचना)
नव-रस के जयमाला पहिरे,
भाव-भंगिमा भरे जबानी।
महाभारत के गीत कथा ह,
‘गढ़’ म कहाथे पंडवानी।।
छत्तीसगढ़ के सोंधी माटी म,
फूले-फलय हबयं पंडवानी।
सुर, धुन, ताल म, हवय गवैये,
धरे तम्बूरा कहयं कहानी।।
पंडवानी के दू अधार हे,
एक हे पुरानिक बेदमती।
दूसर हाबय कापालिक गा,
ये कथा म बगरे लोकमठी।।
बेदमती के बड़े गवइया,
‘पदम सिरी‘ पुनाराम निसाद।
इनकर गुरु पंडवानी पुरोधा,
झाड़ूराम देवांगन के हे वाद।।
चेतन देवांगन चेला ये,
झाड़ूराम अस चतुरा ज्ञानी।
झाड़ूराम के सरल सुभाव ह,
कला म दिखथे पंडवानी।।
सांति चेलक, पहलाद, सोनिया,
परसराम, परभा, हेमलाल।
उंखरे रद्दा मं एमन गाथें,
जन-मन म फैले हे संस्कृति के जाल।।
सबले आगू कापालिक मत म,
‘पद्म भूसन‘ तीजन बाई।
नाच-नचाके, करताल बजा के,
कहिथे सुन गा रागी भाई।।
ये मत म गंज सम्मत हे,
मीना साहू, उसा अउ रितु वरमा।
रेनू, टोमन अउ पुरनिमा,
ये मन गाथें पंडवानी मरमा।।
कभू नाचथें ठुमुक-ठुमुक त,
कभू भीम के पाठ करे।
धरे तम्बूरा, उलटा पकड़े,
गदा सहीं चहुं ओर फिरे।।
महाभारत के अगुवा अरजुन,
पंडवानी म हे भइ भीम बड़े।
इन दोनो अउ सब के सूतधार,
सिरी किसन बने हे, बिना लड़े।।
पंडवानी के कता बने गजब हे,
सबके कइसे हो गुनगान।
साहसी, जोधा, बुध, पराक्रम,
कइसे हो सबके सनमान।।
दुरपति सयंबर म अड़बड़ अड़चन,
महारथी मन हिम्मत हारे।
घुमत चाक म मछरी-आँखी,
तेल कड़ाही म देख के मारे।।
सभा म साधू बन बइठे पांडव,
तामें अरजुन उठ कर आये।
कठिन लक्छ ल भेदन करके,
दुरपति, सुन्दर कन्या पाये।।
सकुनी के छल-कपट म पांडव,
हार गये सब चौसर के दाँव।
बारह बरस वो बन-बन भटकें,
एक बरस रहयं गुप्तन ठांव।।
जुवां म हारे पांडव उदास,
जिरजोधन खिंचवाय दुरपति के साड़ी।
दुरपति के करून गोहार सुन,
सिरी किसन दया मं बाढ़ीस साड़ी।।
बनवास म पांडव संग दुरपति,
दस हजार सिस्य दुरबासा के।
परछो बर वो भोजन मांगिन,
पांडव मन के सब नासा के।।
भोजन कर डारे रिहिन पांडव,
बटलोही परगे निच्चट खाली।
दुरपति किहिस इसनान करहू रिसि,
तब लग जाही भोजन-थाली।।
दुरपति के करून गोहार सुन,
भगवान कसन धउड़े आइस।
बटलोही के एक पान ल,
खाके प्रभु तिरिप्ति पाइस।।
रिसी मन के इसनान करत ले,
जम्मों रिसि मन करिन डकार।
महिमा प्रभु के कोन भुलाही,
रिसि मन धौड़िन कुटिया के दुवार।।
पांडव बर जुध जरूरी होगे,
कौरव-पांडव दुनों दल के।
जुध सुरू होय के पहिले गीता,
ईस उपदेस छलके-झलके।।
फल के आसा तियाग के,
अपन करम-धरम ल मत छोड़।
देख मोर ए विराट सरूप,
मोर कन-कन ले नाता जोड़।।
महभारत के सुरू म हाबय,
बीर बरबरिक के एक कथा।
एक तीर म सबला मिटा दे,
करिस महाबीर नवा मथा।।
प्रभु कहिस मंहभारत मांगथे,
महाबीर के होवे बलिदान।
‘बलि के पाछु जुध देखतेंव‘,
बरबरिक कहे, ‘दो यही बरदान‘।।
वोहर काटिस अपन गला ल,
सौंपिस मुंड़ ला भगवान
चरन।
जुध देखिस परबत फुलगी
ले,
किसन माया ले कौरव मरन।।
भीस्म, द्रोन, करन,
अभिमन्यू,
कृपाचार अउ असवस्थामा।
सकुनी, सल्य, दुसासन,
जयद्रथ,
बरबरिक, घटोत्कछ,
बलधामा।।
दया, धरम अउ सच के
मालिक,
महराज जुधिस्ठिर के गाथा।
कुंती, गंधारी अउ
दुरपति,
एमन नवाथे गंगा ल माथा।।
लाख के घर, पांडव गुप्त
निवास,
अरजुन के इन्द्रलोक गमन।
बिखपान भीम के पताल गमन,
बिराठ के राज मं गऊ
हरन।।
धितरास्ट के भरे सभा म,
सिरी किसन लानिस सांति संदेस।
मांगिस पांडव बर पांच गांव,
नइ मानिस जिरजोधन के द्वेस।।
अउ बोलिस सुजी नोक बरोबर,
पांडव बर इहां भूमि नहीं हे।
गंज अपमान करिस भगवान के,
दिव्य रूप देखाइस, प्रभू यही हे।।
सबके आंखी ह चौंधियागे,
भीस्म, द्रोन, विदुर अउ तपोधन।
देख के चारों करिन परनाम,
गद्गद् होगे इंखरो तन मन।।
भगवान सकेलिस अपन रूप ल,
जिरजोधन के मेवा त्यागिस।
बिदुर के घर जा भाजी खाइस,
प्रभु भगत बर छाहित लागिस।।
महभारत के पाछु गंधारी,
घुस्सा म वोकर फुलगे सांस।
सराप दे डारिस सिरी किसन ल,
कौरव जस होही तोरो कुल नास।।
‘बिन्दाबन
बिहारीलाल की जय‘
येला दुहराथें बार-बार।
जस बोलाय म खुसी समाथे,
बड़ पुन बाढ़े
बारम्बार।।
पंडवानी मं गंज कथा हे,
उनकर कइसे हो गुनगान।
मोर बुध हे निच्चट
नानुक,
सुरूज के आगू जोगनी
जान।।
नवरस के जयमाला पहिरे,
भाव-भंगिमा भरे जबानी।
महाभारत के गीत कथा ह,
‘गढ़’ म कहाथे पंडवानी।।
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रचना- टी. आर.
देवांगन
तिथि-14-01-2011
स्थान- उरला
(बी.एम.वाय.)
जिला- दुर्ग
(छत्तीसगढ़) 490025